(एकमात्र संकल्‍प ध्‍यान मे-मिथिला राज्‍य हो संविधान मे) अप्पन गाम घरक ढंग ,अप्पन रहन - सहन के संग,अप्पन गाम घर में अपनेक सब के स्वागत अछि!अपन गाम -अपन घर अप्पन ज्ञान आ अप्पन संस्कारक सँग किछु कहबाक एकटा छोटछिन प्रयास अछि! हरेक मिथिला वाशी ईहा कहैत अछि... छी मैथिल मिथिला करे शंतान, जत्य रही ओ छी मिथिले धाम, याद रखु बस अप्पन गाम ,अप्पन मान " जय मैथिल जय मिथिला धाम" "स्वर्ग सं सुन्दर अपन गाम" E-mail: madankumarthakur@gmail.com mo-9312460150

गुरुवार, 12 नवंबर 2009

गुरु की पहचान

गतांक से आगे ........
अब तक हमने गुरु के स्थूल स्वरुप की आवस्यकता एवं महानता के बारे में जानने का संक्षिप्त रूप में प्रयास किया था क्योंकि गुरु के स्थूल स्वरुप का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना कोई हँसी खेल नहीं और न यह गुड्डे गुडियों का ही खेल है। जब कोई सच्चा जिज्ञासु श्रद्धा एवं विस्वास पूर्वक अपने सदगुरु के मार्ग निर्देशन में अपनी सांसारिक गति विधियों का संचालन एवं निर्वाह अनासक्त रूप से करता हुआ निष्काम आगे बढ़ता रहता है तो उसे अपने सदगुरु के, अपने इष्ट के सभी गुप्त रहस्यों का ज्ञान धीरे - धीरे हो जाता है और वह स्वयं एक दिन बीजरूप से बदल कर एक छायादार एवं फलदायक वृक्ष के रूप में प्रकट हो जाता है। उसका बीजरूप, छायादार और फलदायक होना स्वयं उसके अन्दर ही था परन्तु यह सब उसे पता नहीं था; इसका पता उसे माली की कृपा से अर्थात गुरु कृपा से मिला।
गुरु के सूक्ष्म रूप की पहचान प्राप्त करने के लिए तो और भी ज्यादा सावधानी, मेहनत, मसक्कत और बलिदान करने की जरूरत पड़ती है क्योंकि जब बाहर में ही इतने अधिक छल प्रपंच हैं की बाहरी गुरु के स्थूल स्वरुप का ज्ञान भी जिज्ञासु की समझ में आसानी से नहीं आता तो अन्दर में तो इससे भी अधिक प्रलोभन हैं; इसलिए गुरु के सूक्ष्म स्वरुप का ज्ञान यदि असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। इसका एक कारण तो यह है की इसका सम्बन्ध मन से है और मन को वश में करना या मन को नियंत्रण में करना हर किसी के वश में नहीं होता। वैसे जो यह कहते हैं कि उन्होंने मन को मार दिया है वे झूंठ कहते हैं क्योंकि मन को मार कर कोई जीवित कैसे रह सकता है। हमें मन से न दुश्मनी करनी है न मित्रता क्योंकि दोनों ही हमें मन के साथ बंधन में बांधने में सक्षम हैं ।
मन कि शक्ति का पता लगाना भी कोई हँसी खेल नहीं है। इस विषय को लंबा न करते हुए सिर्फ़ इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि मन अपने आप में वैसे तो जड़ है, निष्क्रिय है परन्तु जब वह हमसे अर्थात हमारी आत्मा से शक्ति प्राप्त करके हमारी इन्द्रियों के भोगों को भोगनें कि ओर प्रवत्त होता है तो इसकी शक्ति हजार गुना बढ़ जाती है। इस मन कि इस प्रवत्ति को संत अच्छी तरह जानते हैं। इसलिए संत मन के मारने कि बात नहीं करते बल्कि मन कि प्रवत्तियों को परिस्कृत करने का प्रयाश करते हैं।
चूंकि मन पर जो भी प्रभाव संसार कि घटनाओं का या स्थूल पदार्थों का पड़ता है जिससे तथा कथित प्रवत्तियां जन्म लेतीं हैं उनका सम्बन्ध स्थूल पदार्थों से ही होता है अतः इस स्थूल प्रभाव को कम करने के लिए या इसे समाप्त करने के लिए ही स्थूल गुरु कि आवश्यकता पड़ती है। शेष फ़िर कभी ..........
मालिक सबका कल्याण करे

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