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बुधवार, 11 नवंबर 2009

गुरु की पहचान

आप सब गुरु गुरु चिल्लाते रहते हैं, गुरु के पीछे भागते रहते हैं मगर क्या आपको पता है की गुरु क्या होता है, गुरु कौन होता है? गुरु की सही समझ न होने के कारन हम सब भटक रहे हैं और इस कारन कुछ का तो गुरु पर से विश्वास ही उठ जाता है।

सभी संतो ने, महा पुरुषों ने तथा ऋषि मुनियों ने गुरु की महिमा को बड़े उच्च स्वर में गया है इसका एक कारन यह है की गुरु हमारे अज्ञान के अंधेरे को दूर करके प्रकाश का दीपक जलाता है। ऐसा गुरु हम जैसा ही शरीर धारी होता है और हमारी तरह ही सब कार्य करता हुआ प्रतीत होता है परन्तु वह एक ओर तो परमात्मा से जुडा होता है और दूसरी ओर हम जीवों से जुडा रहने के कारन विलक्षण होता है। वह कर्म करता हुआ भी कर्म बंधन में नहीं फंसता बल्कि दूसरों को भी उनके कर्म से मुक्ति प्रदान करने का महान कार्य करता है। ऐसे गुरु के प्रति आदि गुरु संत कबीर साहेब कहते हैं :

सात समंदर की मसि करों लेखन सब बन राय।
धरती को कागद करों गुरु गुन लिखा न जाय ॥
ऐसा गुरु जिज्ञासु जीव के मन को धीरे - धीरे अपने वचनों से संवारता है, सुधरता है और उसे इस योग्य बनता है कि उसके अन्दर गुरु ज्ञान या तत्त्व ज्ञान समां सके। क्योंकि जब तक जिज्ञासु का ह्रदय साफ सुथरा नहीं होगा उसमे तत्त्व ज्ञान ठहर नहीं सकता।
ज्यों कनक पात्र में रहत है सिंहनी का दुग्ध ।
त्यों ही तत्त्व ज्ञान रहत है हृदय होई जिसका शुद्ध ॥

यह पहचान तो उस गुरु कि बताई गई है जिसे आप देख सकते हैं, छू सकते हैं और उससे बातें कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त गुरु के अन्य स्वरुप भीं हैं जिनका परिचय आपको क्रमशः कराया जायगा। तब तक आप यह समझ लें कि गुरु एवं परमात्मा दो नहीं हैं। वास्तव में गुरु परमात्मा का ही स्थूल/शारीरिक रूप है जो जीवों के कल्याण के लिए स्वयं बंधन में फंस कर अपने ही अन्य स्वरूपों का बंधन काटने के लिए अवतरित होता है।

यदि आप मन से, वचन से और कर्म से किसी दूसरे जीव का दिल नहीं दुखाते, उसके दुःख दर्द को अपना दुःख दर्द समझते हैं तो आप गुरु के वचनों को समझने के पात्र बन सकते हैं।

मालिक सबका कल्याण करें

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