भारतीय संस्कृति के प्राचीन जनपदों में से एक राजा जनक की नगरी मिथिला का अतीत जितना स्वर्णिम था वर्तमान उतना ही विवर्ण है। देवभाषा संस्कृत की पीठस्थली मिथिलांचल में एक से बढ़कर एक संस्कृत के विद्वान हुए जिनकी विद्वता भारतीय इतिहास की धरोहर है। उपनिषद के रचयिता मुनि याज्ञवल्क्य, गौतम, कनाद, कपिल, कौशिक, वाचस्पति, महामह गोकुल वाचस्पति, विद्यापति, मंडन मिश्र, अयाची मिश्र, जैसे नाम इतिहास और संस्कृति के क्षेत्र में रवि की प्रखर तेज के समान आलोकित हैं। चंद्रा झा ने मैथिली में रामायण की रचना की। हिन्दू संस्कृति के संस्थापक आदिगुरु शंकराचार्य को भी मिथिला में मंडन मिश्र की विद्वान पत्नी भारती से पराजित होना पड़ा था। कहते हैं उस समय मिथिला में पनिहारिन से संस्कृत में वार्तालाप सुनकर शंकराचार्य आश्चर्यचकित हो गए थे।
कालांतर में हिन्दी व्याकरण के रचयिता पाणिनी , जयमंत मिश्र, महामहोपाध्याय मुकुन्द झा “ बक्शी” मदन मोहन उपाध्याय, राष्ट्रकवि रामधारी सिंह “दिनकर”, बैद्यनाथ मिश्र “यात्री” अर्थात नागार्जुन, हरिमोहन झा, काशीकान्त मधुप, कालीकांत झा, फणीश्वर नाथ रेणु, बाबू गंगानाथ झा, डॉक्टर अमरनाथ झा, बुद्धिधारी सिंह दिनकर, पंडित जयकान्त झा, डॉक्टर सुभद्र झा, जैसे उच्च कोटि के विद्वान और साहित्यिक व्यक्तित्वों के चलते मिथिलांचल की ख्याति रही। आज भी राष्ट्रीय स्तर पर ख्यातिप्राप्त कतिपय लेखक, पत्रकार, कवि मिथिलांचल से संबन्धित हैं। मशहूर नवगीतकार डॉक्टर बुद्धिनाथ मिश्रा, कवयित्री अनामिका सहित समाचार चैनल तथा अखबारों में चर्चित पत्रकारों का बड़ा समूह इस क्षेत्र से संबंधित है। मगर इसका फायदा इस क्षेत्र को नहीं मिल पा रहा। राज्य और केंद्र सरकार द्वारा अनवरत उपेक्षा और स्थानीय लोगों की विकाशविमुख मानसिकता के चलते कभी देश का गौरव रहा यह क्षेत्र आज सहायता की भीख पर आश्रित है। बाढ़ग्रस्त क्षेत्र होने के कारण प्रतिवर्ष यह क्षेत्र कोशी, गंडक, गंगा आदि नदियों का प्रकोप झेलता है। ऊपर से कर्मकांड के बोझ से दबा हुआ यह क्षेत्र चाहकर भी विकास की नयी अवधारणा को अपनाने में सफल नहीं हो पा रहा। जो लोग शैक्षणिक, आर्थिक और सामाजिक रूप से सक्षम हैं भी वे आत्मकेंद्रित अधिक हैं इसीलिए उनका योगदान इस क्षेत्र के विकास में नगण्य है। मिथिलांचल से जो भी प्रबुद्धजन बाहर गए उन्होने कभी घूमकर इस क्षेत्र के विकास की ओर ध्यान नहीं दिया। पूरे देश और विश्व में मैथिल मिल जाएँगे मगर अपनी मातृभूमि के विकास की उन्हें अधिक चिंता नहीं है।
ऐसे में सामाजिक आंदोलन की जरूरत को देखते हुए स्थानीय और प्रवासी शिक्षित एवं आधुनिक विचारों के एक युवा समूह ने नए तरीके से मिथिलाञ्चल में अपनी उपस्थिती दर्ज़ कराई है। दहेज मुक्त मिथला के बैनर तले संगठित हुए इन युवाओं ने अपनी इस मुहिम का नाम दिया है “ दहेज मुक्त मिथिला”।
“दहेज मुक्त मिथिला” जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि यह एक ऐसा आंदोलन है जिसकी बुनियाद दहेज से मुक्ति के लिए रखी गयी है। बिहार के महत्वपूर्ण क्षेत्र मिथिलांचल से जुड़े और देश-विदेश में फैले शिक्षित और प्रगतिशील युवाओं के एक समूह ने मैथिल समाज से दहेज को खत्म करने के संकल्प के साथ इस आंदोलन की शुरुआत की है। सामंती सोच के मैथिल समाज में यूं तो इस आंदोलन को आगे बहुत सी मुश्किलों का सामना करना है मगर शुरुआती तौर पर इसे मिल रही सफलता से ऐसा लग रहा है कि मिथिलांचल के आम लोगों में दहेज के प्रति वितृष्णा का भाव घर कर गया है और वे इससे निजात पाना चाहते हैं।
दहेज मुक्त मिथिला के अध्यक्ष प्रवीण नारायण चौधरी कहते हैं कि “मिथिलांचल में अतीत मे स्वयंवर की प्रथा थी जिसका प्रमाण मिथिला नरेश राजा जनक की कन्या सीता का स्वयंवर है। समय के साथ मिथिलांचल में भी शादी के मामले में विकृति आई और नारीप्रधान यह समाज पुरुषों की धनलिपसा का शिकार होता गया। कभी इस समाज में शादी में दहेज के नाम पर झूटका(ईंट का टुकड़ा) गिनकर दिया जाता था वहीं आज दहेज की रकम लाखों में पहुँच गयी है। दहेज के साथ बाराती की आवाभगत में जो रुपये खर्च होते हैं उसका आंकलन भी बदन को सिहरा देता है। जैसे- जैसे समाज में शिक्षा का प्रचार-प्रसार बढ़ा है दहेज की रकम बढ़ती गयी है।“ श्री चौधरी आगे कहते हाँ कि बड़ी बिडम्बना है कि लोग लड़कियों की शिक्षा पर हुई खर्च को स्वीकार करना भूल जाते हैं।
संस्था की उपाध्यक्षा श्रीमती करुणा झा कहती हैं कि “मिथिलांचल की बिडम्बना यह रही है कि यहाँ नारी को शक्ति का प्रतीक मानकर सामाजिक तौर पर तो खूब मर्यादित किया गया पर परिवार में उसे अधिकारहीन रखा गया। उसका जीवन परिवार के पुरुषों की मर्ज़ी पर निर्भरशील हो गया। शादी की बात तो दूर संपत्ति में भी उसकी मर्ज़ी नहीं चली। इसीलिए दहेज का दानव यहाँ बढ़ता ही गया। लड़कियां पिता की पसंद के लड़के से ब्याही जाने को अभिशप्त रहीं। इसका असर यह हुआ कि बेमेल ब्याह होने लगे और समाज में लड़कियां घूंट-घूंट कर जीने-मरने को बिवश हो गईं।“
इस मुहिम को मिथिलांचल के गाँव-गाँव में प्रचारित-प्रसारित करने हेतु आधुनिक संचार माध्यमों के साथ- साथ पारंपरिक उपायों का भी सहारा लिया जा रहा है। पूरे देश में फैले सदस्य अपने-अपने तरीके से इस मुहिम को प्रचारित कर रहे हैं।
एक समय मिथिलांचल में सौराठ सभा काफी लोकप्रिय था जहां विवाह योग्य युवक अपने परिवार के साथ उपस्थित होते थे और कन्या पक्ष वहाँ जाकर अपनी कन्या के लिए योग्य वर का चुनाव करते थे। यह प्रथा दरभंगा महाराज ने शुरू कारवाई थी। शुरुआती दिनों में संस्कृत के विद्वानों की मंडली शाश्त्रार्थ के लिए वहाँ जाती थी। राजा की उपस्थिति में शाश्त्रार्थ में हार-जीत का निर्णय होता था। यदि कोई युवा अपने से अधिक उम्र के विद्वान को पराजित करता था तो उस युवक के साथ पराजित विद्वान अपनी पुत्री की शादी करवा देता था । बाद में यह सभा बिना शाश्त्रार्थ के ही योग्य वर ढूँढने का जरिया बन गया। आधुनिक काल के लोगों ने इस सभा को नकार कर मिथिलांचल की अभिनव प्रथा को खत्म करने का काम किया।
संस्था के सलाहकार वरिष्ठ आयकर अधिकारी ओमप्रकाश झा कहते हैं की “मिथिलांचल को अपनी पुरानी प्रथा के जरिये ही सुधार के रास्ते पर आना होगा। प्रतिवर्ष सौराठ सभा का आयोजन हो और लोग योग्य वर ढूँढने के लिए वहाँ आयें जिसमें पहली शर्त हो की दहेज की कोई बात नहीं होगी तो दहेज पर लगाम लगाना संभव हो सकता है। पहले भी सौराठ में दहेज प्रतिबंधित था। विवाह में बाराती की संख्या पर भी अंकुश लगाने की जरूरत है। संप्रति देखा जा रहा है कि मिथिललांचल में शादियों में बारातियों की संख्या और उनके खान-पान की फेहरिस्त बढ़ती ही जा रही है। गरीब तो दहेज से अधिक बारातियों की संख्या से डरता है।”
बात सिर्फ आर्थिक लेन-देन तक सीमित हो तो भी कोई बात है। अब तो कन्या के साथ साज-ओ-सामान की जो फेहरिस्त प्रस्तुत की जाती है वह बड़ों-बड़ों के होश उड़ा देता है। उस पर भी आलम यह है कि अधिकतर लड़कियां विवाह के बाद दुखमय जीवन बिताने को मजबूर है क्योंकि स्थानीय स्तर पर कोई उद्योग नहीं है और परदेश में खर्च का जो आलम है वह किसी से छुपा नहीं है।
“दहेज मुक्त मिथिला” आंदोलन के जरिये मैथिल समाज में सुधार की एक नयी धारा चलाने में जुटे लोगों के सामने सबसे बड़ी चुनौती मैथिल समाज के उन लोगों से आएगी जो महानगरों में रहकर अच्छी नौकरी या व्यवसाय के जरिये आर्थिक रूप से समृद्ध हो चुके हैं और दहेज को अपनी सामाजिक हैसियत का पैमाना मानते हैं। ऐसे लोग निश्चित रूप से विकल्प की तलाश में इस आंदोलन को कुंद करने का प्रयास करेंगे जिसे सामूहिक सामाजिक प्रतिरोध के जरिये ही रोका और दबाया जा सकता है। कुछ राजनेता जो अपने को मैथिल समाज का मसीहा मानते हैं उनके लिए भी ऐसा आंदोलन रुचिकर नहीं है। पर वक़्त की जरूरत है कि यह क्षेत्र ऐसे आंदोलनों के जरिये अपने में सुधार लाये।