हम कौन हैं या हम क्या हैं यह जानने के लिए हमें कुछ त्याग करना पड़ेगा और वह त्याग कोई भौतिक त्याग नहीं है अपितु हमें हमारी सांसारिक बुद्धि को स्थिर रखते हुए जो कुछ भी अब तक हमने सीखा है या जाना है उसे भूल कर इस नवीन सन्देश के लिए थोडा सा स्थान बनने देना है. यद्यपि यह प्रश्न हम सब के दिलो दिमाग पर जीवन में अनेक बार उठता है कि हम कौन हैं, कहाँ से आये हैं, क्यों आयें हैं ( हम अपने आप तो आये नहीं हमें तो यहाँ भेजा गया है) लेकिन हम भौतिक जगत की आवस्यकताओं की पूर्ति करने में इतने व्यस्त रहते हैं कि हम अपने अंतर कि इस मौलिक एवं मूलभूत आवाज को अनसुना कर देते है. इसीलिए आपसे कुछ त्याग करने के लिए अनुरोध किया गया है ताकि जो गूढ़ बात अब यहाँ बताई जाने वाली है उस बात का प्रभाव यदि १००% नहीं तो कुछ अंश तक तो अवश्य आपके अन्दर प्रवेश कर सके.
एक शायर ने बहुत ही सटीक कहा है:
पहचान ले खुद को तो इन्सान खुदा है, जाहिर में गो खाक है मगर खाक नहीं है.
जलवों की खता क्या जो दिखाई नहीं देते, खुद देखने वालों की नजर पाक नहीं है.
जब हम इस संसार में सारी उम्र संघर्ष करने के बाद भी अपने आप को पूरी तरह से नहीं जान पाते तब खुदा को पाने या संसार का समस्त ज्ञान पाने का हमारा दावा खोखला ही माना जायगा. अपने आपको या दूसरों को जानने की इच्छा कभी-न-कभी हर इन्सान के मन में आती है; यह बात दूसरी है कि हममें से अधिकतर लोग इस जिज्ञासा का गला ही घोंट देते हैं. वास्तव में यह एक जटिल प्रश्न है और शायद इसीलिए हम इसको हल करना नहीं चाहते. या इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि वर्तमान आधुनिकीकरण एवं अर्थवाद की गला-काट-प्रतिस्पर्धा के चलते ऐसे प्रश्नों को हल करने का कोई लाभ प्रतीत नहीं होता.
हम बाहरी तौर पर जो दिखाई देते हैं या वर्तमान में जो हमारी वाह्य पहचान बन गई है इसे नाकारा नहीं जा सकता परन्तु यही सब कुछ है; ऐसा भी नहीं है. हमारे इस भौतिक शरीर का सम्बन्ध ईश्वर के विराट स्वरूप से है. इस भौतिक शरीर में एक सूक्ष्म शरीर भी है जिसके अन्दर बहुत कुछ छिपा है जैसे- मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, इच्छा, आशा, वासना, काम, क्रोध, लोभ, ईर्षा, द्वेष, घ्रणा, कल्पना, संतोष, सय्यम आदि. इस सूक्ष्म शरीर का सम्बन्ध ईश्वर के अव्याकृत रूप से है.
इसके अतिरिक्त इस शरीर का सम्बन्ध ईश्वर के हिरण्यगर्भ रूप से भी है जिसका प्रतिनिधि हमारी आत्मा है. यहाँ तक का ज्ञान तो आम आदमी पुस्तकों से पढ़ कर अथवा दूसरों से सुनकर प्राप्त कर सकता है यद्यपि ऐसा ज्ञान वाचक ज्ञान कहलाता है और यह हमें अधिक दूर तक नहीं ले जाता; तथापि इस ज्ञान से ही सत्य की खोज की चाह पैदा होती है-इसी में से सत्य जानने का अंकुर पैदा होता है.
इस हर-मंदिर में (गुरु नानक देव जी ने इस शरीर को हर-मंदिर कहा है क्योंकि इसमें हरी निवास करता है/ इस शरीर में ईश्वर रहता है) इन सबका साक्षी भी रहता है जिसे विशुद्ध आत्मा या सुरत कहते हैं जो ईश्वर का ही रूप होता है. इस रूप को ईश्वर का अंश कहना भी गलत होगा क्योंकि अंश का तात्पर्य सामान्य रूप से यह लगाया जाता है कि यह पूर्ण का टुकड़ा है जबकि वह ईश्वर या मालिक तो अविभाज्य है.
इस प्रकार एक अमूर्त भाव को मूर्तरूप में व्यक्त करने का प्रयास किया गया है जिसमे कहने और सुनने या लिखने और पढने वाले के अनुभवज्ञान के स्तर में भिन्नता होने पर अर्थ का अनर्थ होने कि सम्भावना बनी रहती है क्योंकि सामान्य लोग शब्दों का सामान्य अर्थ लगा कर बात को समझने का प्रयास करते हैं और इसी में गलती कर जाते हैं. इसका मूल कारण यह है कि:
यह करनी का भेद है नहीं बुद्धि विचार,
कथनी तज करनी करे तब पावे कुछ सार.
संक्षिप्त में कहने का तात्पर्य यह है कि हम कोई नश्वर शरीर मात्र ही नहीं हैं; न ही हम इस भौतिक संसार में केवल खाने-पीने और मौज उड़ाने आये हैं बल्कि हम तो ईश्वर के अंश हैं और पूर्ण हैं और इस संसार में ईश्वर को ढूंढने आये हैं क्योंकि इस सृष्ठी के आदि में उसने हमें अपने से दूर भेज दिया था और दूर भी इसलिए भेज दिया था ताकि हम उससे दूर होकर उसके विरह में व्यथित हों और उसे पाने का प्रयास करें. और यह प्रयास भी वही हमसे करवाता है; हम अपनी शक्ति के बल पर उसे ढूंढने का प्रयास भी नहीं कर सकते. अपने से दूर भेजने का एक कारण यह भी हो सकता है कि वह ईश्वर हमेशा लीला करता रहता है जैसे बच्चे लुका-छिपी का खेल खेलते हैं और उसी खेल-खेल में उसने हमें अपने से दूर भेज दिया ताकि हम उसे ढूंढे लेकिन हम उसे ढूंढ़ नहीं पाते. इसलिए वह अपने जीवों को निज धाम ले जाने के लिए संतो/सतगुरु के रूप में प्रगट होकर लेने आता है क्योंकि वह हर जीव से बेहद प्यार करता है. परन्तु फिर भी हम इस संसार के मेले में इतने मोहित हो जाते हैं कि हम उसकी बात को ही नहीं सुनते और वह जो शब्द कि नाव लेकर आता है उस पर बैठ नहीं पाते और वह निराश होकर चला जाता है.
मालिक सब का कल्याण करे
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