अतिदीप सेंवथ में पढ़ने वाला बच्चा, छुट्टी उसे खराब लगती है क्योंकि इस दिन स्कूल नहीं होता, दोस्त नहीं मिलते और दिन नहीं कटता। दिन भर कंप्यूटर या टीवी ही एकमात्र सहारा था समय गुजारने का। मां सात बजे ऑफिस से आतीं, पापा नौ बजे। बड़ी बहन थी, पर वह अपनी दुनिया में व्यस्त रहती। उसकी बातें उसकी समझ से दूर थीं। इंजीनियरिंग के फाइनल इयर की स्टूडेंट होने के कारण उसे समय था भी नहीं।
दादी थी नहीं, नानी दूसरे शहर में थी। चाची से मां की बनती नहीं और मौसी का घर दूर होने के कारण आए दिन वहां जाना संभव नहीं था। बेचारा मन मसोस कर रह जाता। उसे चार साल की नन्ही उम्र से पता था कि उसे बाहर नहीं निकलना, किसी के लिए दरवाजा नहीं खोलना और किसी पर भरोसा भी नहीं करना। एकाएक ही वह बचपना छोड़ मेच्योर हो गया। सवाल इस बात का नहीं कि वह अकेलापन महसूस करता है बल्कि मुश्किल यह है कि उसके जैसे बच्चों की संख्या अनगिनत है। रिश्तों की अहमियत से आज का बच्चा अनजान है। पहले परिवार संयुक्त होते थे। स्त्रियां भी कमकाजी नहीं थीं, जो थीं उनके बच्चे परिवारजनों के सुरक्षात्मक माहौल में आसानी से पल जाते थे। चाचा-बुआ के बच्चों का फर्क को कभी इन्होंने जाना नहीं। सबको एक सा खाना-पीना मिलता और एक साथ चहकना व खेलना। वे सुहाने दिन, छोटी-छोटी बातों पर झगड़ना और फिर झट से मान जाना। ये रिश्ते की मीठी यादें ही ताजिंदगी नहीं भूलतीं और आपसी प्यार को बनाए रखती हैं।
रीमा की मां ने दूसरे बच्चे को जन्म देने के बारे में कभी गलती से भी नहीं सोचा क्योंकि इसके जन्म के समय में ही उसे कम मुश्किलें नहीं झेलनी पड़ी थीं। एक साल के लिए नौकरी से लम्बी छुट्टी साथ ही कभी किसी रिश्तेदार को बुलाओ तो कभी दूसरे के नखरे उठाओ। ऐसे में दूसरे के बारे में सोचना भी असंभव था। आज वही रीमा अलग-थलग अपने में चुपचाप रहती है। स्कूल में भी उसकी दोस्ती किसी से नहीं। मनोचिकित्सक का कहना है कि बचपन में हुई परवरिश का असर सारी जिंदगी दिमाग पर हावी रहता है। इसीलिए संसार भर में संबंधों की अनिवार्यता को लेकर तमाम तरह से बल दिया जाता है। यहां तक कि पश्चिमी संस्कृति में, जहां रिश्तों की कद्र नहीं थी, अब अहमियत को समझा जा रहा है। मां-बाप सारी जिंदगी किसी के नहीं रहते, इसलिए परिवार अकेले बच्चे से नहीं बनेगा। हो सकता है कि वह इंडिपेंडेंट ज्यादा बने लेकिन अकेलापन तो दूर नहीं कर पाएगा।
आज जरूरत है इसी स्नेह और मिठास को बनाए रखने की। समय के साथ जरूरतें भले ही कितनी भी बदल जाएं, रिश्ते हमेशा जिंदा रहते हैं। वक्त-जरूरत पर ये ही अपने काम आते हैं। जिंदगी को मुकम्मल बनाने के लिए अपनों का साथ जरूरी है। अब वक्त आ गया है जब हमें अपने बच्चों को रिश्तों को निभाना ही नहीं, जीना भी सीखाना पड़ेगा, चाहे इसके लिए कुछ भी करना पड़े।
रिश्तों की बेहतरी के लिए पेरेंट्स क्या करें
बच्चों की परवरिश में क्वालिटी टाइम लगाएं व बच्चे का दृष्टिकोण व्यापक करें, उसे रिश्तों की अहमियत समझाएं। याद रखें कि घरेलू रिश्ते मधुर होने पर ही सामाजिक जीवन बेहतर बनता है।
बहुत मजबूरी न हो तो परिवार को अति सीमित न रखें। बच्चों को बड़ों के प्रति संवेदनशील व उदार बनाने में सहयोग दें।बच्चों को बाहर ले जाएं या गेट टु गेदर करें जिससे वे सोशल बनें और मिलना-जुलना सीखें।अपने बच्चों के साथ कम्युनिकेशन बनाए रखें जिससे वह आपसे हर बात शेयर कर सकें।बच्चे को जिम्मेदार बनाने का मतलब यह नहीं कि उसमें शेयरिंग की भावना न हो। उसे मिल-बांट कर रहना सिखाएं।बच्चे के दोस्तों को समझों जिससे उसके माहौल के सही या गलत होने की जानकारी आपको रहे। इमोशनल बांडिंग को बनाने और मजबूत करने में सहयोग दें।हमेशा याद रखें कि बच्चा कहीं न कहीं आपका ही अनुसरण कर रहा होता है, इसलिए अपने व्यवहार को सयंमित रखें।छोटी-छोटी खुशियों में परिवार के साथ एंजॉय करना सीखें और सिखाएं।परिवार भले ही सीमित हुए हों लेकिन मॉडर्न टेक्नोलॉजी ने दूर से रिश्तों को निभाना भी आसान किया है। इसका फायदा लेना सिखाएं।
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