धर्मशास्त्र कहते हैं कि आत्मज्ञानीवह है, जो सभी विकारों से मुक्त होता है। हमारे अंदर विकार होने से हमें आत्मज्ञान कदापि नहीं प्राप्त हो सकता। इस संदर्भ में एक कथा है-
एक बार महर्षि वेदव्यासऔर उनके पुत्र शुकदेववन जा रहे थे। एक सरोवर में कुछ देवकन्याएं स्नान कर रही थीं। आगे-आगे शुकदेवऔर पीछे-पीछे महर्षि वेदव्यास।शुकदेवजब उधर से गुजर रहे थे, तो देवकन्याएं पूर्ववत नहाती रहीं। उन्होंने उन पर कोई ध्यान नहीं दिया। जब महर्षि गुजरने लगे, तो वे शर्मा गईं और कपडों से बदन ढंक लिया। यह देखकर महर्षि ने आश्चर्य प्रकट करते हुए उन लोगों से पूछा, अभी कुछ पल पहले मेरा पुत्र वहां से गुजर रहा था, तो तुम लोगों ने उसकी तरफ ध्यान भी नहीं दिया। मैं तो वृद्ध हो चुका हूं, तब भी मुझे देखकर इस तरह शर्मा रही हो? देवकन्याएं बोलीं, शुकदेवकी दृष्टि आत्मस्थहै। उन्हें संपूर्ण जगत में केवल आत्मतत्व ही दिखाई देता है। इसलिए उन्हें देखकर हमें लज्जा का भाव पैदा नहीं हुआ। महर्षि आप महाज्ञानीहैं, लेकिन आपकी दृष्टि में सारा संसार बसा हुआ है, इसलिए आपको देखकर हममें लज्जा का भाव पैदा हो गया। महर्षि भी समझ गए कि उनका पुत्र शुकदेवकोई साधारण साधक नहीं है, बल्कि एक उच्च कोटि का ब्रह्मज्ञानीहै। ऐसे ब्रह्मज्ञानीके लिए संसार में कोई कर्तव्य शेष नहीं रह जाता है। भगवान श्रीकृष्ण भी गीता में कहते हैं- जो मनुष्य सारी इच्छाओं को त्याग देता है और लालसा रहित होकर कार्य करता है, उसे ही शांति मिलती है। ऐसे साधक प्रवृति के लोग ही आत्मज्ञानीया ब्रह्मज्ञानीकहे जाते हैं।
बौद्ध दर्शन में कहा गया है- ब्रह्मत्वको प्राप्त करना ही पूर्णता है। यह तभी संभव है, जब मनुष्य सारे विकारों से छूट जाता है। गीता में इसी को स्थितिप्रज्ञ कहा गया है। जब तक हम विकार से रहित नहीं होते हैं, तब तक संासारिकताके चक्रव्यूह में फंसे रहते हैं। हमें न तो आत्मज्ञान हो पाता है और न ही मनुष्य जन्म के मूल लक्ष्य की ही तरफ आगे बढ पाते हैं। ऐसा नहीं है कि गृहस्थ जीवन में रहकर या गृहस्थ जीवन से छूटकर ही आत्मज्ञान मिलता है। राजा जनक गृहस्थ जीवन बिताने के बावजूद आत्मज्ञानीथे। उन्हें ब्रह्मत्वप्राप्त हो गया था। इसके उलट करोडों लोग गृहस्थ जीवन त्याग कर भी आत्मज्ञानीनहीं हो सके। मतलब हमारी साधना पर निर्भर करता है कि हम लक्ष्य प्राप्त कर पाते हैं कि नहीं। संत तुलसीदास कहते हैं कि आत्मज्ञान के लिए प्रभु की कृपा और पुरुषार्थ दोनों आवश्यक है। जप, तप, ज्ञान, उपासना, स्तुति और सच्ची भक्ति से ही मन से विकार दूर हटते हैं और सद्भाव जाग्रत होते हैं।
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