देव दत्त ईश्वर भक्ति करते थे, पर बात- बात पर पत्नी को धमकी देते थे कि देख ! तू अपने काम में सतर्क नहीं रही या तुमने यह काम नहीं किया तो मैं संत पुनीत के आश्रम में चला जाऊंगा, वैराग्य ले लूँगा। उसकी पत्नी यह सोच - सोच कर दुबली होती चली गई कि कहीं पतिदेव सचमुच ही न चले जाएँ। एक दिन संत पुनीत भ्रमण करते हुए उसके घर आ गए और बोले- "विद्यावती ! तेरा स्वस्थ्य कैसा हो गया, तू कुछ खाती नहीं क्या?" यह सुनकर वह रो पड़ी। संत के कहने पर उसने पति कि बार-बार धमकी कि बात बता दी। संत ने कहा कि जब वह अबकी बार धमकी दे तो उसे मेरे पास भेज देना। मैं उसे ठीक कर दूंगा। अगले दिन भोजन बनाने में कुछ देर हो गई तो देवदत्त ने पुनः धमकी दी। विद्यावती बोली - "कल कि छोडिये, आज ही चले जाइये। मन नहीं लगे तो वापस आ जाइयेगा।
अब तो देवदत्त के अहंकार को दुगनी चोट लग गई। वह तुरंत आश्रम को चला गया। रात में सोने की व्यवस्था हो गई। अगले दिन सन्यास दीक्षा के लिए पुनीत महाराज के पास पहुंचे तो उन्होंने कहा- "कपडे उतर दो और नहा कर आओ।" उधर वे नहाने गए, इधर संत के इशारे पर देवदत्त के सारे कपडे फाड़ दिए। कुछ कडवे फल स्वल्पाहार के लिए रखे। फटे कपडे देख कर देवदत्त बहुत नाराज हुआ और जैसे ही खाना खाने बैठा तो गुस्से के मरे आश्रम के ब्रहम्चारियों को अपशब्द कहने लगा। यह कैसी व्यवस्था है? महर्षि बोले- "वैरागी को पहले संतोषी, धैर्यवान, सहनशील बनना पड़ता है।" देवदत्त बोला -"यह तो मैं घर पर भी कर सकता था। आपके पास तो विशिष्ट साधनाओं के लिए आया था। " महर्षि बोले - "तात! घर लौट कर सदगुणों का अभ्यास करो। विभूतियाँ तो बाद की बातें हैं।" देवदत्त घर लौट आये। पत्नी से क्षमा मांगने लगे। पत्नी ने कहा-"आपका स्वागत है प्रियतम घर में।
यदि हर गृहस्थी यह समझ ले तो सभी ओर शांति की साम्राज्य हो।
अपने अन्दर छुपे हुए सत्य का एक छोटा सा एहसास भी जीवन की साडी अपवित्रता को मिटाने में सक्षम है। आग की एक छोटी सी चिंगारी भी फूस के विशाल भंडार को नष्ट करने की क्षमता रखती है। इसी तरह अपने अन्दर छुपे हुए देवत्व का स्पर्श पाकर पूरे व्यक्तित्व में आग सी लग जाती है। जब उस देवत्व के बारे में सुनकर मन में रस आने लगे तो मानना चाहिए कि हमारे अन्दर रूपांतरण हो रहा है। नर-पशु भी यदि इस ओर ध्यान देने लगे तो वह भी एक दिन देवमानव बन कर रहेगा।
महर्षि शमीक और उनके शिष्यों को कुरुक्षेत्र के मैदान में महाभारत के महारण में एक खंडित घड़े के नीचे टिटहरी के कुछ अंडे मिले। शिष्य आश्चर्य चकित थे कि इतने भीषण युद्ध में भी वे अंडे न सिर्फ सुरक्षित थे बल्कि उनमे से कुछ पक्षी भी निकल आये थे। ऋषि ने उन्हें आश्रम ले चलने को कहा क्योंकि अगले दिन फिर युद्ध होना था। शिष्यों ने कहा- "महाराज जब ईश्वर ने इन्हें महासंग्राम में बचाया है तो क्या वह इनकी आगे रक्षा नहीं करेगा?" ऋषि - "वत्स ! जहाँ भगवान का काम समाप्त होता है, वहां मनुष्य का काम आरम्भ होता है। ईश्वर के छोड़े काम को पूरा करना ही मनुष्यता है।
ईश्वर ने जो परिवार या सहयोगी हमें दियें हैं उनकी सहायता करना हमारा धर्म है क्योंकि हम भी किसी न किसी कि सहायता प्राप्त करके ही बड़े हुए हैं ।
bahut achha laga pathke rajesh ji
जवाब देंहटाएंdhanywad
bahut nik---
जवाब देंहटाएंशिष्यों ने कहा- "महाराज जब ईश्वर ने इन्हें महासंग्राम में बचाया है तो क्या वह इनकी आगे रक्षा नहीं करेगा?" ऋषि - "वत्स ! जहाँ भगवान का काम समाप्त होता है, वहां मनुष्य का काम आरम्भ होता है। ईश्वर के छोड़े काम को पूरा करना ही मनुष्यता है।