गुरु की पहचान
अब एक छोटा सा या मोटा सा प्रश्न कभी-कभी यह उठता है कि गुरु की पहचान कैसे की जाय? यह पता कैसे चले कि कोई व्यक्ति जिसे अन्य लोग गुरु समझते हैं वह गुरु है भी या नहीं इसकी पहचान कैसे हो? कहीं वह धोखेबाज तो नहीं जैसा कि आमतौर पर आजकल देखने-सुनने में आता है. यह संदेह बिलकुल सत्य है क्योंकि यदि किसी व्यक्ति के अन्दर पूर्ण श्रद्धा और विश्वास नहीं है तो उसे न तो सच्चे संत महात्मा/ सच्चे सदगुरू से कुछ मिल सकता है और न ही ढोंगी बाबा से. इसके विपरीत जिसको जिस पर पूर्ण श्रद्धा और विश्वास है उसे उससे मनोवांछित फल मिलने कि पूरी सम्भावना रहती है. अब इसके साथ ही एक प्रश्न यह भी पैदा होता है कि आप के पास ऐसा कौन सा औजार है, कौन सा बारोमीटर है, कौन सा स्केल या पैमाना है जिससे आप यह अंदाज लगा सकते हैं कि कोई व्यक्ति सच्चा सदगुरू है या पाखंडी है. अगर आप समझते हैं कि आप औरों कि नक़ल करके गुरु कि पहचान कर सकते हैं तो भी आप गलती खा सकते हैं क्योंकि उसने अपने अनुभव या अपनी मान्यता के आधार पर किसी को गुरु माना है जिसकी तुलना आप नहीं कर सकते और यदि आप अपनी बल बुद्धि के आधार पर कोई निर्णय लेते हैं तो इसका अर्थ यह हुआ कि आप गुरु कि परीक्षा लेने के काबिल हैं अर्थात आप गुरु से ज्यादा समझ रखते हैं . क्योंकि एक एम० ए० के विद्यार्थी कि कापी उससे उच्च ज्ञान रखने वाला ही जाँच सकता है कोई हाई स्कूल पास नहीं.
देखिये आदि संत कबीर साहिब गुरु के बारे में कहते हैं :
गुरु को मानुस जानते, ते नर कहिये अंध
दुखी होएँ संसार में आगे जम का फंद
गुरु किया है देह को सतगुरु चीन्हा नाहीं
कहें कबीर ता दास को तीन ताप भ्रमाहीं
गुरु नाम आदर्श का गुरु है मन का इष्ट
इष्ट आदर्श को ना लाखे समझो उसे कनिष्ट
इससे तो यह स्पष्ट होता है कि गुरु आम आदमी की तरह ही दीखता है, आम आदमी की तरह खाता-पीता है और आम आदमी की तरह ही सब जगत-व्यवहार करता है परन्तु उसमें एक खास बात होती है जो अन्य सामान्य व्यक्तियों में नहीं होती जिसके कारण गुरु अन्य व्यक्तियों से भिन्न होता है और वह खास बात यह है की गुरु के अन्दर परमतत्व पूर्ण रूप से अवतरित हुआ होता है. यूँ तो परमतत्व इस संसार/इस ब्रह्माण्ड और कोटि-कोटि ब्रह्माण्डों के एक-एक अणु और परमाणु में भी मौजूद रहता है क्योंकि सब कुछ उसी से निकला है, उसी में समाया हुआ है और उसी में विलीन हो जायगा फिर भी सभी संत- महात्मा और सभी प्राचीन धार्मिक ग्रन्थ यही कहते आये हैं कि वह परमतत्व जड़ पदार्थों में सुप्त अवस्था में रहता है, वनस्पतियों में वह अचेतन, पशु -पक्षियों में अर्धचेतन, मनुष्यों में चेतन अवस्था में और संत्सत्गुरु में वह पूर्ण चेतन अवस्था में रहता है और अपने निज स्वरुप में वह चेतनघन अवस्था में रहता है. चूंकि संत्सत्गुरु में वह पूर्ण चेतन अवस्था में रहता है इसलिए संत सत्गुरुवक्त ही उस पूर्ण चेतनता को दूसरे व्यक्तियों में प्रवाहित करने में सक्षम है. इस द्रष्टिकोण से भी यही प्रमाणित होता है कि गुरु मनुष्य रूप में स्वयं परमतत्व ही होता है.
सांसारिक आवश्यकताओं की पूर्ति, एश्वर्य और धन -धन्य की पूर्ति तो किसी भी देवी-देवता, या किसी भी वस्तु को इष्ट मान कर पूजा करने से हो सकती है, इससे लोक और परलोक भी सुधर सकते हैं परन्तु इनकी पूजा से आवागमन से छुटकारा नहीं मिल सकता. आवागमन से छुटकारा यदि कोई दिला सकता है तो वह हस्ती संत सत्गुरुवक्त ही है वह इस प्रकार की एक तो वह स्वयं निर्बंध होता है दूसरे वह आपकी शंकाओं का आपके संदेहों का निवारण मुंह-दर-मुंह फेस-टू - फेस कर सकता है जिससे आपकी प्रगति अबाधित रूप से होने लगती है जो अन्य प्रकार से संभव नहीं.
अब रही बात यह कि गुरु पर श्रद्धा और विश्वास कैसे लाया जाय? यह बिलकुल निजी मामला है और इसके लिए कोई सिद्धांत प्रतिपादित नहीं किये जा सकते क्योंकि जितना भी इस बारे में कहा जायगा वह विवादित बन जायगा. जैसे कोई किसी को रोना नहीं सिखा सकता, किसी को प्रेम करना नहीं सिखा सकता, इसी प्रकार कोई किसी को किसी पर श्रद्धा और विश्वास करना भी नहीं सिखा सकता. यह तो जब होता है तब होता है और नहीं होता तो नहीं होता. फिर भी अपनी तुच्छ बुद्धि के अनुसार और अपने अनुभव के आधार पर मैं यहाँ पर लिखना चाहता हूँ कि यदि किसी को किसी महापुरुष के पास बैठकर मानसिक शांति मिलती है, उसके काम-क्रोध में कमी आने लगती है, उसकी वासनाएँ बदलने लगती हैं, उसके विकारों में परिवर्तन आना शुरू हो जाता है, उसकी चंचलता घटने लगती है तो समझो कि वह आपका मार्गदर्शन करने में सक्षम है. यदि वह अपनी प्रशंसा नहीं करता/करवाता, अहंकारवश कोई बात नहीं कहता, वाह्य-आडम्बरों से दूर रहता है और किसी का खंडन-मंडन नहीं करता और अपने अनुभव के आधार पर आपकी समस्स्याओं का समाधान बताता है तो ऐसा महापुरुष गुरु स्वीकार करने के योग्य है. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह कि उसके पास बैठकर आपके मन में यह भावना जाग्रत हो जाय कि जिसकी मुझे तलाश थी बस वह यही है. यदि ऐसी चिंगारी आपके मन मंदिर में जाग उठती है तो आप का काम उससे बन जायगा और आपका कल्याण हो जायगा. अब एक बात यहाँ पर और स्पष्ट करने योग्य है कि क्या गुरु कि खोज हम करते हैं? मेरी धारणा है कि गुरु कि खोज तो स्वयं गुरु कि प्रेरणा से ही होती है. वही हमारे अन्दर यह भावना पैदा करता है कि हम-एक-दूजे के लिए हैं.
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