गुरु की पहचान
संतमत में सबसे ज्यादा जोर, सबसे ज्यादा महिमा गुरु की गाई जाती है. संतमत में गुरु को भगवान से भी बढ़ कर माना जाता है. संतमत के आदि गुरु संत कबीर ने तो यहाँ तक कह दिया :
गुरु गोबिंद दोउ खड़े काके लांगू पॉंव
बलिहारी गुरु अपनों जिन गोबिंद दियो बताय
पता है ऐसा क्यों कहा गया है? इसके अनेक कारण हो सकते हैं. ज्ञानी और विद्वान तो अपने-अपने तर्कों के अनुसार अनेकोंअनेक कारण ढूंढ कर विषय को और भी अधिक जटिल बना सकतें हैं क्योंकिं शब्द जाल महा जाल होता है और उससे बच निकलना आसान नहीं होता और विद्वानों के पास तो शब्दों का अपार भंडार होता है. इसलिए मैं अपनी तुच्छ बुद्धि के आधार पर इसका साधरण सा कारण इस प्रकार व्यक्त करता हूँ:
सभी धर्म सभी संत महात्मा अनादी काल से कहते आये हैं कि ईश्वर ने मनुष्य को अपने ही रूप में बनाया है परन्तु किसी ने भी आज तक असली ईश्वर को बाहर में नहीं देखा है जिसने भी ईश्वर को पाया है उसने अंतर में ही दर्शन पाया है और अंतर में दर्शन पाकर गूंगा बन गया है क्योंकि असली ईश्वर का न तो वर्णन हो सकता है और न ही उसकी व्याख्या हो सकती है. वाणी तो उसे व्यक्त करने का एक कमजोर साधन है जिसके चलते अर्थ का अनर्थ हो जाता है अर्थात वाणी के चलते सत्य असत्य हो जाता है. ईश्वर अनुभव का विषय है और इस अनुभव को वही दूसरे को अनुभव करा सकता है जिसने स्वयं इसका अनुभव किया हुआ होता है. यद्यपि प्रत्येक मनुष्य के अन्दर ईश्वर मौजूद है तथापि हरेक उसका अनुभव स्वयं करने में असमर्थ है. इसके भी अनेक कारण हो सकते हैं- जैसे पूर्व जन्मो के प्रारब्ध कर्म और उनका संस्कार, इस जन्म के संचित कर्म और क्रियमाण कर्म और उनके संस्कार; इसके अतिरिक्त काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईर्षा, आशा, तृष्णा, वासना और कामना आदि ऐसी मानवी वृतियां हैं जिनके चलते घर में ही खजाना होते हुए भी हम जीवन भर कंगाल ही बने रहतें हैं. जो इन पर विजय प्राप्त कर लेता है या जिसे उस खजाने कि चाबी मिल जाती है वही उस धन का उपयोग कर सकता है.
जिसको इसका ज्ञान हो जाता है वही दूसरों को इसका ज्ञान दे सकता है और गुरु ही वह हस्ती है जिसे अंतर का ज्ञान हो चूका होता है और वही इस ज्ञान को दूसरों को बाँटने में सक्षम होता है. मेरी समझ के अनुसार गुरु की आवश्यकता इसीलिए जानी जाती है.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें